ततः कलियुगे प्राप्ते कैलो नामा भविष्यति ।
कलिकाल में लोक
मम भक्तस्तस्य नामना भाव्या कैलेश्वरीत्यहम् ।।
कल्याणार्थ मेरा प्रादुर्भाव होगा और मुझे ‘कैलेश्वरी’ नाम से जाना
जायेगा । मैं उस समय अपनी ‘कला’ रूप में अवतरित होने से
“कैला” कहाऊँगी
प्राचीन ग्रन्थों में माता के प्राकट्य एवं चरित्र की अनेक कथायें आती हैं। उन्हीं ग्रन्थों में स्कन्दपुराण के 65वें अध्याय में कैलादेवी के विषय में एक लेख मिलता है। द्वापर में भीमसैन की स्तुति पर प्रसन्न होकर माँ ने कहा था “कालिकाल में लोक कल्याणार्थ मेरा प्रादुर्भाव होगा और मुझे ‘कैलेश्वरी’ नाम से जाना जायेगा। मैं उस समय अपनी ‘कला’ रूप में अवतरित होने से ‘कैला’ कहलाऊंगी”। इस प्रकार ‘कैला’ भगवती का पौराणिक नाम सिद्ध होता है।
राजस्थान के करौली जनपद के मुख्यालय से 25 किमी. की दूरी दक्षिण में और मध्य-प्रदेश की सीमा से लग कर बहती हुई चम्बल नदी से लगभग 30 किमी. की दूरी दक्षिण-पूर्व कैला ग्राम के समीप घोर बियावान जंगल में पर्वत श्रेणियों से घिरे त्रिकूट नामक पर्वत पर राज राजेश्वरी कैलादेवी का दिव्य मन्दिर है। इस विशाल बियावान जंगल को कैलादेवी अभयारण्य कहा जाता है। यह उत्तर भारत के सिद्ध शक्तिपीठों में से एक है। मन्दिर के नीचे पहाड़ी की तलहटी में पूर्व से पश्चिम और फिर दक्षिण की ओर धनुषाकार में एक नदी बहती है। यह नदी इसी त्रिकूट पहाड़ी से निकलती है जिसे कालीसिल (शिला) नदी कहा जाता है। लगभग सन् 1700 ई. में निर्मित कैला देवी माँ का यह सिद्ध शक्तिपीठ करौली राज्य में होने के कारण ही इन्हें करौली वाली माता भी कहा जाता है ।
पूर्व में इस कैलादेवी मन्दिर में केला मां का यह श्री विग्रह कब और कहाँ से आया, इसका कोई प्राचीन लिखित लेख, अभिलेख या बीजक तो मिलता नहीं। हाँ, जनश्रुति तथा वृद्धजनों के आधार पर इस सिद्धपीठ की स्थापना के विषय में जो कुछ मैया केला रानी के चमत्कारों और उत्पति की अनेकों किवदन्तियों से ज्ञात हो सकी वह इस प्रकार है कि प्राचीनकाल में बाँसीखेड़ा के पास ही एक दूसरा प्राचीन ग्राम लोहर्रा के भयानक जंगल में स्थित गिरी, कन्दराओं में एक दानव निवास करता था । दानव का आतंक के कारण संयासी एवं आमजन ग्रामवासी थर-थर कांपते थे। जिसकारण ग्रामवासियों का घरों से निकलना भी कठिन हो गया।
लोहर्रा ग्राम से कुछ दूरी पर वर्तमान मन्दिर से 3 किमी दूर एक गुफा बनी हुई है जहाँ बाबा केदारगिरि, माँ भगवती की उपासना तप किया करते थे। ग्राम के वृद्धजन एकत्रित होकर बाबा के स्थान पर पहुँचे। ग्रामवासियों ने अपनी सारी व्यथा अश्रुपूरित नेत्रों से बाबा केदारगिरि को कह सुनाई तथा कहा कि हे महाराज हमें जैसे भी हो इस घोर विपदा से छुटकारा दिलवाइये। बाबा केदारगिरि ने ग्रामवासियों का आश्वासन दिया कि अपने तपोबल से माँ भगवती को प्रसन्न करके दानव का वध करने का आह्वाहन करेंगे तत्पश्चात ग्रामवासियों से विदा लेकर स्वयं हिंगलाज पर्वत पर तपस्या करने चले गए ।
बाबा केदारगिरि ने हिंगलाज पर्वत पर घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर मां कैलादेवी वात्सल्यपूर्ण कन्या के रूप में बाबा के समक्ष प्रकट हुईं और बाबा को वरदान दिया कि वह शीघ्र ही दानव का नरसंहार करेगी। कुछ समय पश्चात देवी मां कैला ग्राम में प्रकट हुई और उस दानव का मां कैला ने एक कन्या के रूप में कालीसिन्ध नदी के तट पर वध कर दिया। वर्तमान समय में एक बडे पाषाण पर आज भी दानव के पैरों के चिन्ह तथा माताजी के चिन्ह एक शिला पर बने हुए हैं। वहाँ छोटी सी छतरी भी बनी हुई । इस स्थान का नाम आज भी दानवदह के नाम से जाना जाता है। यह दानादह वर्तमान मन्दिर से 2 कि.मी. उत्तर की ओर तथा काली सिल पर बने पुल से 500मी. पूर्व की ओर मौजूद हैं। दानव के वध के पश्चात बाबा केदारगिरी ने कैलादेवी प्रतिमा की स्थापना 1114 ई. में की थी।
बाबा केदारगिरि की गुफा के पास एक बोहरा भगत की एक किवदन्ती के अनुसार वह अपनी बकरियाँ को उस दुर्गम पहाड़ियों पर चराता था। वे खैरालिया गोत्र में उत्पन्न बहोरीपुर ग्राम का वासी था। एक दिन बोहरा भगत ने देखा की उसकी बकरियां एक विशेष स्थान पर अपना दूध सृवित कर रही है इस चमत्कार ने उसे आश्चर्य में डाल दिया। धार्मिक प्रवृति के बोहरा भगत का मन ही मन भक्तिभाव से देवी मां को खूब रमता था, उसने इस स्थल की खुदाई की तो देवी मां की प्रतिमा निकली। भगत ने भक्तिपूर्वक पूजन कर ज्योति जगाई धीरे-धीरे प्रतिमा की ख्याति पूरे क्षेत्र में फैल गई। एक दिन मां कैला ने बहोरा भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर दर्शन दिए और मनवांछित वरदान देने के लिए कहा ।
भगत भला क्या कहता ? है माँ जगत्-जननी मैं यही चाहता हूँ कि हमेशा इसी तरह, मैं तुम्हारे सन्मुख खड़ा हुआ इस रूप को निहारता रहूँ, माताजी ने भक्त के वचनों को सुना और कहा । हे भक्त मेरी मूर्ति सम्मुख तेरी भी पूजा, मेरे साथ होगी। जो भक्त मनुष्य पितर-खोर से दुखी होंगे, उनके दुख को तुम्हीं दूर करोगे। यह कहकर माँ अन्तर्ध्यान हो गई। आज भी बोहरा भगत का मंदिर कैलादेवी मंदिर के मुख्य प्रांगण में स्थित है। निकटस्थ आमपीतुपुरा ग्राम के मीणा परिवार ने अपनी भक्ति से देवी को प्रसन्न किया। तभी से उसी परिवार के बंशज देवी का भाव प्रकट करके गोठिया कहलाते हैं। अधिकांश लोगो में चर्चा रहती है की माँ कैला देवी की मूर्ति का मुख एक ओर टेढ़ा क्यों है।
इस बारे में भी कई किवदन्तियाँ हैं। इनमें कौनसी बात सही है, यह बताना मुश्किल है। बुजुर्ग लोगों के अनुसार आगरे का रहने वाला गोली भगतजी भी कैलादेवी का अनन्य भक्त था जो पुराने जमाने में बैलगाड़ियों के रसाले के साथ देवी भक्तों को लेकर प्रति वर्ष कैलादेवी आता था। गोली भक्त को किसी कारणवश मन्दिर में दर्शन नहीं करने दिये, इससे माँ कुपित हो गई और इसी से उनका मुख एक ओर टेढ़ा हो गया। जबकि कुछ लोगों का कहना है कि माताजी का एक भक्त जाते समय माँ से कह गया था कि माँ मैं जल्दी ही लौट कर आऊँगा लेकिन वह फिर नहीं आ सका। अतः माँ का भक्त जिस दिशा में गया था, उसी ओर देखकर उस भक्त की प्रतीक्षा कर रही है।
कुछ लोगों का विचार है कि मातेश्वरी ने अपना मुख चामुण्डा देवी की ओर से घुमा लिया है और वह इसलिए कि चामुण्डाजी तमोगुणी है और वह मांस-मदिरा आदि का भक्षण करती है और माँ कैलादेवी सात्विकी, सतोगुणी हैं इसलिए वे इन चीजों का सेवन नहीं करतीं ।
माँ श्री कैलादेवी का यह मन्दिर अब जिस भूमि पर बना हुआ है, वह भूमि कभी गागारौन नामक किले जोकि चम्बल नदी के पार कोटा राज्य में खींची राजा श्री मुकुन्ददास के अधिकार में थी। इन्होंने श्री कैलादेवी मन्दिर से लगभग 10 किमी. दूर दक्षिण में बसे बाँसीखेरा गाँव में स्थापना बीजक सम्वत 1207 में मां चामुण्डा की मूर्ति स्थापित कर उसकी आराधना की थी। बाँसीखेरा ग्राम खण्डर रूप में परिवर्तित होने के कारण चामुण्डा मैया की यही मूर्ति बाद में सेवा-पूजा के अभाव के कारण करौली के महाराज श्री गोपालसिंह जी के द्वारा सम्वत् 1708 ई. में यहाँ प्रतिष्ठित हुई । उस समय कैलादेवी का मन्दिर बहुत ही साधारण था। सम्वत् 1787 में मन्दिर का निर्माण कार्य पूरा हुआ और कहते है कि उस समय इस कार्य में महाराज ने अपने जेब खर्च से दस हजार रुपये लगवाए थे बाद में अन्य परवतीं करौली यदुवंशी शासकों द्वारा इसका व्यापक विकास होता चला आ रहा है।
राजा जयसिंहपाल ने मंदिर की गुंबद बनवाकर स्वर्ण कलश लगवाया तथा पेयजल के लिए एक बाबड़ी भी बनवाई। महाराजा अर्जुनपाल ने देवी की पूजा व्यवस्था में सुधार के अनेक कदम उठाए। राजा भंवरपाल ने तो माँ कैलादेवी पर अटूट आस्था रखते हुए वर्तमान कालीसिल बाँध, बड़ी धर्मशाला, दुर्गासागर कुआ, चाँदी के मंदिर कपाट, विजय स्तम्भ, बाज़ार की दुकानें तथा करौली-कैलादेवी का पक्का मार्ग बनवाकर सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगवाए।
मन्दिर का प्रबन्ध, देखभाल और मेलों पर होने वाली सभी व्यवस्थाएँ इत्यादि कार्य इस मन्दिर की ट्रस्ट द्वारा होता आ रहा है। प्रतिमास यहाँ अमावस्या से लेकर नवमी तक हजारों दर्शनार्थी पहुँचते हैं। किन्तु चैत्र माह की नवरात्रें के दिनों में तो अपार जन-समूह एकत्र होता है। लाखों जात देने वाले परिवार यहाँ पहुँचकर माता के दर्शन-पूजा करते हैं। श्रद्धालु विवाह पश्चात नवविवाहित जोड़े को लेकर, संतान प्राप्ति का सुख पाकर और अपनी मन्नत पूरी करने के लिए माता के दर्शन-पूजा करते हैं। यहाँ नवरात्रों के समय विशालतम लक्खी मेला का आयोजन होता है जिसे कुम्भ के बाद उत्तर भारत का दूसरा धार्मिक मेला माना जाता है। मेले में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, गुजरात एवं दक्षिण भारतीय प्रदेशों तक के श्रद्धालु अधिक संख्या में आते हैं।
सत्राह दिवसीय इस मेले का मुख्य आकर्षण देखने को रोजाना लाखों की संख्या में दूरदराज के पदयात्री लम्बे-लम्बे ध्वज लेकर लांगुरिया गीत गाते हुए आते है। मेले के दौरान महिला यात्री सुहाग के प्रतीक के रूप में हरे रंग की चुडियां एवं सिंन्दूर की खरीददारी करना नहीं भूलती है, वहीं बच्चों का मुंडन संस्कार की परम्परा भी यहां देखने को मिलती है। मंदिर परिसर में ढोल-नगाडों की धुन पर अनायास ही पुरूष दर्शनार्थी लांगुरिया गीत गाने लगते है, तो महिला दर्शकों के कदम थिरके बिना नहीं रहते ।
मन्दिर में प्रवेश करने पर सर्व प्रथम संगमरमर की आठ सीढ़ियाँ हैं जिनके दोनों ओर संगमरमर की बनी दो चौकियाँ हैं। यहाँ पर मातेश्वरी के वाहन शेर की दो प्रतिमायें पहरेदार के रूप में लगी हुई हैं। ऊपर चढ़ने पर दोनों ओर दो बरामदे बने हुए हैं। माता के दाहिनी ओर वाले बरामदे में करौली के महाराजाओं एवं सेनापति आदि की तस्वीरें बनी हुई हैं। यहीं पर कुछ विद्वान पण्डित जन दुर्गा सप्तसती का पाठ करते हैं। बाऐं बरामदे में शस्त्रागार है जिसमें बन्दूकें, तलवार आदि हथियार रखे हैं। मन्दिर के अन्दर संगमरमर के अठारह खम्भे हैं। अन्दर से दोनों ओर गैलरी नुमा दो दरवाजे बने हुए हैं। दाहिने दरवाजे के सामने चौक बना हुआ है जहाँ भक्तजनों द्वारा लाये हुए माँ के रंग-बिरंगे झण्डे रखे जाते हैं। माई के निज द्वार के पट तथा दोनों ओर की खिड़कियों के द्वार चाँदी के बने हुए हैं।
अन्दर मुख्य प्रकोष्ठ में चाँदी की कलात्मक- चौकी पर चाँदी-सुवर्ण की छतरियों के नीचे मनोहारी श्रृंगार किये दो श्री विग्रह हैं जिनमें बाँई ओर वाला विग्रह बड़ा और टेढ़े मुखारविन्द वाला मातेश्वरी कैलादेवी का हैं। दाहिनी ओर वाला श्री विग्रह चामुण्डा माता का है। प्रतिमाओं के समीप दो दीपक अविरल (अखण्ड) रूप से जले हुए रहते हैं। इनमें एक देशी घृत से और दूसरा तिल्ली के तेल से भरा जाता है। इस मुख्य मन्दिर के सामने बहुत बड़ा चौक है और चौक में एक ओर श्री गणेश जी, लाँगुरिया, बोहरा भक्त, भैरव आदि के मन्दिर एक पंक्ति में हैं।
इनकी सेवा-पूजा भोग आदि का प्रबन्ध इसी मन्दिर ट्रस्ट के अन्तर्गत आता है । मन्दिर में दर्शन का समय प्रातः चार बजे मंगला झाँकी और इसके बाद आठे बजे श्रृंगार की झाँकी होती है। दोपहर बारह बजे से एक बजे तक माताजी के शयन का समय है। फिर दोपहर एक बजे से रात नौ बजे तक दर्शन होते हैं। रात्रि में विशेष जागरण का कार्यक्रम होता है तब जागरण के पश्चात् मैया रानी को शयन करा दिये जाते हैं।
संपादनकर्ता
(लेखक एवं विचारक)
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